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ये कहां आ गये हम.........
जब मैं छोटा था तब कि दुनियां ही पूरी तरह से अलग थी। दोस्तों के दिल में मास्टर साब के डांट का डर, बाबू जी के घूरते आंख का डर, अम्मा के दुलार की आदत, अक्सर खेलने में शाम को देर हो जाने पर बहिनीयां का चोरी छिपे मेरे लिए दरवाजा खोलना जैसी पता नहीं कितनी घटनाए आज भी अनायास की मेरे आंखों के सामने से घूम जाती हैं. उस समय सोचता कि कब बड़ा हूंगा और कब मुझे पिता जी और मास्टर साहब की डांट से आजादी मिलेगी।
पर अब तो जैसे दुनियां ही बदल गई है, जैसे- जैसे बड़ा हुआ समाज में मिली इस स्वतंत्रता ने तो मुझे इतना भ्रमित कर दिया कि बचपन से सिखाया हुआ संस्कार, रिति-रिवाज सब बस बकवास लगने लगा अगर सोच में रह गई तो सिर्फ स्वार्थ और आलोचना।
आज हमने जिंदगी के इस पड़ाव पर जो पाया है उससे अच्छा तों मास्टर साब की डांट ही थी कि कम से कम स्वार्थ और आलोचना तो नहीं थी। रिश्तों और मानवीयता की हत्या करने वाले लोगों के दूषित समाज का चेहरा तो छिपा हुआ था। अगर था तो किताबों का समाज, रिश्तों की अहमीयतता, शर्म का पर्दा, मानवीयता का दर्द।
हमने प्रगति तो कर लिया है, पर क्या प्रगति के साथ-साथ बचपन उस समाज को जो कि मां-बाप और मास्टर साब की आंखों से देखे थे, वह बना पाएं है...... ?
शायद नहीं !
इसका कारण भी स्वार्थ और आलोचना की प्रवृत्ति ही है कि हम कोई भी जिम्मेदारी नहीं लेना चाहते बल्कि उसे दूसरे पर थोप देते हैं..... अगर ऐसा ही रहा मान्यवर तो अपनी वाले वाली पीढ़ी को हम न ही पर्यावरण दे पाएंगे और न ही सभ्य समाज !
जरा सोचिए और बताईये कि इसके लिए क्या-क्या किया जाना चाहिएण् मुझे आपके उत्तरों का इंतजार रहेगा।
ये कहां आ गये हम.........
जब मैं छोटा था तब कि दुनियां ही पूरी तरह से अलग थी। दोस्तों के दिल में मास्टर साब के डांट का डर, बाबू जी के घूरते आंख का डर, अम्मा के दुलार की आदत, अक्सर खेलने में शाम को देर हो जाने पर बहिनीयां का चोरी छिपे मेरे लिए दरवाजा खोलना जैसी पता नहीं कितनी घटनाए आज भी अनायास की मेरे आंखों के सामने से घूम जाती हैं. उस समय सोचता कि कब बड़ा हूंगा और कब मुझे पिता जी और मास्टर साहब की डांट से आजादी मिलेगी।
पर अब तो जैसे दुनियां ही बदल गई है, जैसे- जैसे बड़ा हुआ समाज में मिली इस स्वतंत्रता ने तो मुझे इतना भ्रमित कर दिया कि बचपन से सिखाया हुआ संस्कार, रिति-रिवाज सब बस बकवास लगने लगा अगर सोच में रह गई तो सिर्फ स्वार्थ और आलोचना।
आज हमने जिंदगी के इस पड़ाव पर जो पाया है उससे अच्छा तों मास्टर साब की डांट ही थी कि कम से कम स्वार्थ और आलोचना तो नहीं थी। रिश्तों और मानवीयता की हत्या करने वाले लोगों के दूषित समाज का चेहरा तो छिपा हुआ था। अगर था तो किताबों का समाज, रिश्तों की अहमीयतता, शर्म का पर्दा, मानवीयता का दर्द।
हमने प्रगति तो कर लिया है, पर क्या प्रगति के साथ-साथ बचपन उस समाज को जो कि मां-बाप और मास्टर साब की आंखों से देखे थे, वह बना पाएं है...... ?
शायद नहीं !
इसका कारण भी स्वार्थ और आलोचना की प्रवृत्ति ही है कि हम कोई भी जिम्मेदारी नहीं लेना चाहते बल्कि उसे दूसरे पर थोप देते हैं..... अगर ऐसा ही रहा मान्यवर तो अपनी वाले वाली पीढ़ी को हम न ही पर्यावरण दे पाएंगे और न ही सभ्य समाज !
जरा सोचिए और बताईये कि इसके लिए क्या-क्या किया जाना चाहिएण् मुझे आपके उत्तरों का इंतजार रहेगा।
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